बुधवार, 21 अप्रैल 2010

जब ख़यालों में...

जब ख़यालों में ढली ये ज़िन्‍दगी 
एक पहेली सी  लगी ये ज़िन्‍दगी 

कौन समझा कौन समझेगा इसे 
फूल-काँटों   से  भरी  ये ज़िन्‍दगी 

प्‍यास मिट जाये किसी की इसलिए 
बर्फ  सी  हरदम  गली  ये  ज़िन्‍दगी

कौन था जिसने संभाला हर घड़ी 
लड़खड़ाई जब  कभी ये ज़िन्‍दगी 

मैं अचानक बेखु़दी में ढल गया 
बारहा इतनी  खली ये ज़िन्‍दगी

हो  गये  रोशन   कई   बुझते   दिये 
सोजे़-ग़म में जब जली ये ज़िन्‍दगी

एक  हसीं  हसरत  की ख़ातिर दोस्‍तो
रात भर तिल-तिल जली ये ज़िन्‍दगी

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

     नजरें झुकाये मिले

मिले भी तो नज़रें झुकाये मिले 
कोई   राज़  दिल   में छुपाये मिले 

बढ़ा     दीं    मेरी    और    बेचैनियां 
लबों  पर तबस्‍सुम सजाए मिले

न जाने मैं किस शहर में आ गया 
    अपने   मिले        पराए   मिले 

हुईं   कोशिशें    भूलने     की     मगर  
 ख़यालों पे  अक्‍सर वो छाए मिले 

हसीं  और  आंसू  का  संगम रहा 
ख़ुशी  पर ग़मों के भी साये मिले
                      

रविवार, 4 अप्रैल 2010

दर्द सीने में दबे थे...


दर्द   सीने   में   दबे   थे    होंठ   मुसकाते रहे 
हम किसी की जुस्‍तजू में ठोकरें खाते रहे

बादलों   की  गोद में जब सो रही थी चांदनी 
कुछ उजाले भी धुंधलकों में नज़र आते रहे


वो  चला  आयेगा एक दिन तोड़ के सब बंदिशें 
इस तरह से रोज़ ही हम ख़ुद को समझाते रहे

एक खाली घर है यारो, शायराना दिल मेरा 
लोग  मेहमाँ   की   तरह   आते   रहे जाते रहे 
      
अब  भले ही वो हमें  बेगाना कहता है मगर 
दौर इक ऐसा भी था जब हम उसे भाते रहे